सरदार पटेल: वह ‘सरदार’ जो प्रधानमंत्री नहीं बन पाए
यह कहानी है एक जननायक की, जिसे लाखों किसान अपना ‘सरदार’ कहते थे। यह कहानी है सरदार वल्लभभाई पटेल की, जो भारत की आजादी के सबसे लोकप्रिय नेताओं में से एक थे, फिर भी देश के पहले प्रधानमंत्री नहीं बन पाए। यह सवाल आज भी इतिहास में एक पहेली की तरह है: महात्मा गांधी ने क्यों जवाहरलाल नेहरू का समर्थन किया, जबकि कांग्रेस की प्रांतीय कमेटियों ने सरदार पटेल को चुना था?
1946: जब इतिहास ने करवट ली
आजादी के ठीक पहले, 1946 में कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव होना था। यह सिर्फ एक पद का चुनाव नहीं था, बल्कि यह तय होना था कि आजाद भारत का पहला अंतरिम प्रधानमंत्री कौन बनेगा। मौलाना अबुल कलाम आजाद, जो 1939 से कांग्रेस अध्यक्ष थे, अब इस पद को छोड़ना चाहते थे।
कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव के लिए प्रांतीय कमेटियाँ अपनी राय भेजती थीं। उस समय, 15 में से 12 कमेटियों ने सरदार पटेल के नाम का प्रस्ताव रखा। एक भी कमेटी ने जवाहरलाल नेहरू का नाम नहीं सुझाया था। बहुमत स्पष्ट रूप से पटेल के साथ था।
लेकिन, तभी महात्मा गांधी ने हस्तक्षेप किया। जे.बी. कृपलानी, जो उस समय कांग्रेस महासचिव थे, ने अपनी किताब ‘गांधी: हिज लाइफ एंड थॉट्स’ में इस घटना का ज़िक्र किया है। उन्होंने गांधीजी को प्रांतीय कमेटियों की सिफारिशों की एक लिस्ट दी, जिसमें नेहरू का नाम नहीं था। गांधीजी ने लिस्ट देखी और बिना कुछ कहे वापस लौटा दी।
गांधीजी ने जवाहरलाल नेहरू का पक्ष लिया। उन्होंने महसूस किया कि अगर नेहरू को दूसरा स्थान मिलेगा, तो वह इसे स्वीकार नहीं करेंगे। इस बात को ध्यान में रखते हुए, उन्होंने सरदार पटेल से बात की। पटेल, जो गांधीजी का बहुत सम्मान करते थे, ने बिना किसी विरोध के अपना नाम वापस ले लिया। इस तरह, जवाहरलाल नेहरू बिना किसी चुनौती के कांग्रेस अध्यक्ष बन गए और फिर भारत के पहले प्रधानमंत्री बने।
गांधीजी ने नेहरू को क्यों चुना?
यह सवाल उठता है कि गांधीजी ने ऐसा क्यों किया? इसके पीछे कई कारण बताए जाते हैं:
* नेहरू की वैश्विक छवि: महात्मा गांधी जानते थे कि नेहरू एक आधुनिक, विश्वदृष्टि वाले नेता थे। वह पश्चिम से आए थे और अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत का प्रतिनिधित्व बेहतर ढंग से कर सकते थे। गांधीजी को लगा कि नेहरू की युवा और प्रगतिशील छवि नए भारत के लिए सही होगी।
* पटेल की ‘कट्टर’ छवि: वीडियो में बताया गया है कि सरदार पटेल के कुछ बयानों ने उनकी छवि एक सख्त और मुसलमानों के प्रति ‘कड़वे’ नेता की बना दी थी। 1945 में जब मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की मांग की, तब पटेल ने कहा था कि मुस्लिम लीग चाँद पाने का सपना देख रही है। 1948 में उन्होंने पाकिस्तान के हमले के बाद भारत के मुसलमानों से कहा था कि वे “दो घोड़ों की सवारी” न करें और भारत या पाकिस्तान में से किसी एक को चुनें। हालांकि, पटेल की यह सोच राष्ट्र की अखंडता और एकता के लिए थी, लेकिन उस समय के माहौल में इसे ‘एंटी-मुस्लिम’ छवि से जोड़ा गया। गांधीजी शायद डरते थे कि पटेल के नेतृत्व में मुस्लिम समुदाय अलग-थलग महसूस कर सकता है।
* गांधीजी का नेहरू से गहरा लगाव: कई इतिहासकारों का मानना है कि गांधीजी का नेहरू के प्रति गहरा स्नेह था। पत्रकार दुर्गा दास ने अपनी किताब ‘इंडिया फ्रॉम कर्जन टू नेहरू’ में लिखा है कि राजेंद्र प्रसाद ने उनसे कहा था, “गांधीजी ने आकर्षक नेहरू के लिए अपने सबसे विश्वसनीय साथी का बलिदान कर दिया।”
मौलाना अबुल कलाम आजाद ने भी अपनी आत्मकथा ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में इसे अपनी ‘हिमालय से भी बड़ी गलती’ बताया कि उन्होंने जवाहरलाल नेहरू के नाम का समर्थन किया, जबकि उन्हें पटेल का साथ देना चाहिए था। उनका मानना था कि अगर पटेल प्रधानमंत्री होते, तो शायद भारत का विभाजन टाला जा सकता था।
यह एक ऐसा ऐतिहासिक फैसला था जिसने भारत की दिशा बदल दी। एक तरफ, सरदार पटेल जैसे मजबूत और अनुभवी नेता थे, जिन्हें जनता का समर्थन प्राप्त था, तो दूसरी तरफ जवाहरलाल नेहरू जैसे आधुनिक और लोकप्रिय नेता थे, जिनका गांधीजी ने समर्थन किया।
यह कहानी दिखाती है कि कैसे व्यक्तिगत संबंधों, राजनीतिक विचारों और दूरदर्शिता के फैसलों ने भारत के इतिहास को आकार दिया।
मैं आपको उस झगड़े के बारे में बताता हूँ जिसकी वजह से महात्मा गांधी और सरदार पटेल के बीच मतभेद पैदा हो गए थे।
नेहरू और पटेल के बीच का झगड़ा: एक टकराव, जिसका समाधान गांधीजी ने किया
यह बात 1930 के दशक की है, जब जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल, दोनों ही कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेता थे। दोनों के बीच अक्सर वैचारिक मतभेद होते रहते थे, लेकिन एक घटना ने इन मतभेदों को सार्वजनिक रूप से सामने ला दिया। यह झगड़ा था कांग्रेस की नीतियों और भविष्य की दिशा को लेकर।
क्या था झगड़े का कारण?
यह टकराव मुख्य रूप से दो मुद्दों पर था:
* समाजवाद बनाम व्यावहारिकता: जवाहरलाल नेहरू सोवियत संघ के समाजवाद से काफी प्रभावित थे। वह भारत को एक समाजवादी देश के रूप में देखना चाहते थे, जहाँ सरकार का आर्थिक गतिविधियों पर ज्यादा नियंत्रण हो। वहीं, सरदार पटेल एक व्यावहारिक नेता थे। वह मानते थे कि भारत को आर्थिक विकास के लिए निजी उद्यम और पूंजीवाद को भी बढ़ावा देना चाहिए। पटेल को लगता था कि नेहरू का समाजवाद भारत की जमीनी हकीकत से मेल नहीं खाता।
* राज्यों के अधिकार: नेहरू राज्यों के अधिकारों को कम करके एक मजबूत केंद्रीय सरकार बनाना चाहते थे। इसके उलट, पटेल मानते थे कि राज्यों को अधिक स्वायत्तता मिलनी चाहिए, ताकि वे अपनी विशिष्ट जरूरतों के अनुसार काम कर सकें।
यह टकराव तब और बढ़ गया जब 1936 में नेहरू ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने की धमकी दी। उन्होंने आरोप लगाया कि पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेता, जिनमें पटेल भी शामिल थे, उनके समाजवादी विचारों का विरोध कर रहे हैं। नेहरू को लगता था कि पार्टी में उनके विचारों के लिए कोई जगह नहीं है।
गांधीजी का हस्तक्षेप
जब यह झगड़ा अपने चरम पर था, तब महात्मा गांधी ने दोनों नेताओं के बीच सुलह कराई। उन्होंने दोनों के बीच सामंजस्य बिठाने की कोशिश की, लेकिन इस घटना ने उनके मन में एक बात साफ कर दी थी। गांधीजी को लगा कि अगर नेहरू और पटेल एक साथ मिलकर काम करेंगे तो उनके बीच के मतभेद पार्टी को कमजोर कर सकते हैं।
दुर्गा दास ने अपनी किताब में लिखा है कि राजेंद्र प्रसाद ने इस घटना के बारे में बताया कि गांधीजी ने अपने “विश्वसनीय साथी” (पटेल) को हटाकर “ग्लैमरस नेहरू” का समर्थन कर दिया था। गांधीजी ने यह फैसला शायद इसलिए लिया क्योंकि उन्हें नेहरू को संभालना पटेल से ज़्यादा आसान लगता था। नेहरू, अपने आदर्शवादी विचारों के बावजूद, गांधीजी का सम्मान करते थे और उनकी बात मानते थे, जबकि पटेल अपनी राय पर अडिग रहते थे।
इस घटना के बाद, गांधीजी ने हमेशा नेहरू को आगे रखा और पटेल को पीछे रहने के लिए मना लिया। यही कारण है कि पटेल ने 1929, 1936 और 1939 में कांग्रेस अध्यक्ष बनने का मौका छोड़ा।
इस तरह, दोनों नेताओं के बीच का यह वैचारिक मतभेद ही शायद वह जड़ थी, जिसने गांधीजी को यह फैसला लेने के लिए मजबूर किया कि नेहरू ही आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री बनें।